धरती से जो एक आवाज़ आई ,
एक करुण पुकार कौंध गई धडकनों में,
लगा जैसे तुम हो, पर जब देखा पीछे मुड़कर
वो तुम न थी,
वो तो कोई और हीं था
शायद पागल चौराहे का
-कुछ बुद बुदाता हुआ ....!
शायद प्यार का मारा हुआ ,
कुछ कहता था वह
किसी का नाम बार बार उसके होठों पे तैरते थे
हसता कभी कभी रोता
--लोगों से कहते सुना "पागल है कोई"
अजीब लगा मुझे --
क्या इसे हीं कहतें है पागल ,
और कुछ संभला था मैं,
हाथों से सबारे थे बाल अपने,
डर था, लोग कह न दे पागल मुझे भी
मेरी भी हालत भी तो वोसी हीं थी
तेरे ख्यालों में बार बार तुझे पुकारता
पागल की तरह
पर मुलाकात हो न सकी
तेरी परछाई से भी
अरमानो की शाम ढलने लगी ,
पर तेरी यादें बार बार उकसाती मुझे
तेरा फैसला जानने को
रोकती कभी शायद मेरा दंभ ,
मैं कुछ समझ नही पाटा और,
बरबस याद आ गया वोही पागल ,
देखा था जिसे मैंने चौराहे पे ...........
लोग जिसे कह रहें थे पागल
पर नजरो में मेरी पागल वो था नही,
हाँ एक मुर्ख थे शायद
जो लुटता रहा ख़ुद को
एक प्यार के खातिर॥
जब कुछ न बचा
एक उपाधि दे दिया ज़माने ने उसे
उसका अर्थ भले हीं उसे मालूम न था
वो तो कुछ और हीं समझ रहा था
पागल का मतलब--
शायद एक सौदागर प्यार का
जो बगैर मोल लिए बेचता रहा अपने लहू
इसी एक उपाधि के लिया,
जो इस ज़माने ने दिया था उसे
वह बेफिक्र अपनी राह पे चलता बस चलता जा रहा था ,
कोई ठिकाना न था ,
कहीं जाना न था
न थी माथे पे कोई शिकन ,
न ही होठों पे कोई शिकवा
निहारता रहा उसे मैं
ओझल न हो गया तबतक---
मेरी आंखों से वो
सिखा गया वो पागल जिंदगी का फलसफा
छिपा जो होता है पीछे, हर प्यार के,
बस मुस्कुराता चल पड़ा था मैं भी
उसी पागल के रास्त्ते पे........!!!!
No comments:
Post a Comment